जब मैंने बलि देने का मशवरा दिया \ इन्द्रजीत कमल - Inderjeet Kamal

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Thursday, 14 May 2015

जब मैंने बलि देने का मशवरा दिया \ इन्द्रजीत कमल

                                                  एक बार मुझे एक परिवार ने गाँव में बुलाया | कहने लगे कि उनके घर में खून के छींटे गिरते हैं | मैंने जाकर पूरी जाँच पड़ताल की , मगर किसी परिणाम तक न पहुंचा | घर में मुझे एक भी  सदस्य ऐसा नहीं मिला जो किसी मानसिक उलझन के कारण ऐसी हरकत कर सकता हो |मैं हैरान होकर आंगन में पड़ी चारपाई पर बैठ गया |घर की औरतें अपने काम में लग गई |मेरे लिए चाय अ गई | मैंने चाय पीते हुए देखा कि मेरी चारपाई के पास ही ताज़े खून के छींटे पड़े हुए थे |मैं बहुत ही हैरान हुआ क्योंकि इस समय दौरान कोई भी मेरे पास नहीं आया था |
                                                        अब मेरा सतर्क होना जरूरी था ; क्योंकि शरारती अनसर मेरी हाजरी में मेरे पास ही हरकत कर गया था | मैं चाय पीते समय पूरी मुस्तैदी में था कि वो शरारती अनसर मेरे मन के अदंर दहशत पैदा करने के लिए कोई और हरकत न करे |
                                                        थोड़ी देर वहाँ बैठे रहने के दौरान मेरे से थोड़ी दूर ही जमीन पर खून के छींटे गिरे जो गिरते हुए मैंने खुद देखे  और मेरी हंसी छूट गई | परिवार वाले पहले ही परेशान  थे , मुझे हंसता देख कर हैरान  हो कर कारण पूछने लगे |
                                          मैंने कहा , " बलि देनी पड़ेगी !"
                                            वो कहने लगे ,"  बोलो जी किसकी बलि देनी है बकरे की यां मुर्गे की ? "
                                           मैंने कहा , " मुर्गे की !"
                                           " बस ! ये कौन सी बात है !! इससे मसला हल हो जाएगा ?"
                                       " जरूर हो जाएगा |" कह कर  मैंने उनकी शंका मिटाने के लिए घर में घूमता मुर्गा पकड़ कर लाने  को कहा |वो झट से पकड़ कर ले आए |मुर्गे की गर्दन पर एक जख्म था |  घूमता हुआ मुर्गा जब अपना सर झटकता था तो वहाँ खून के छींटे गिर जाते थे | दोषी की पहचान करके मैं घर को आ गया |

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